- बहुफसलीय क्षेत्र है गोंदलपुरा, पूरे वर्ष खेतों में रहती है हरियाली
- खेती-बाड़ी और पशुपालन करनेवाले ग्रामीण आंदोलन को मजबूर
हजारीबाग: झारखंड के हजारीबाग जिले के गोंदलपुरा पंचायत में कोल ब्लॉक के लिए भूमि अधिग्रहण की कोशिश और कवायद काफी अरसे से चलाइ जा रही है। वही अपनी मिट्टी से जुड़े ग्रामीण इन कवायदों पर अपना पुरजोर विरोध भी लगातार जारी रखे हुए हैं। बताया जाता है कि भूमि अधिग्रहण के लिए प्रशासन ने छह बार ग्राम सभा आयोजित की और हर बार ग्रामीणों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। हाथों में तख्तियां तक लेकर गोंदलपुरा के किसान परिवार प्रदर्शन करने को भी बाध्य हुए। गोंदलपुरा के लोग भविष्य की आशंकाओं को चिंतित भी हैं और गांव बचाने के लिए पुरजोर तरीके से संघर्ष करने की बात भी कह रहे हैं। फिलहाल जमीन अधिग्रहण के विरोध में ग्रामीण बीते कई दिनों से सतत धरने पर बैठे हुए हैं।
जमीन अधिग्रहण के मामले पर ग्रामीणों का कहना है कि हमारा अस्तित्व हमारे गांव, हमारे खेत-खिलहान से है। यहां की मिट्टी में हमारा जीवन जुड़ा है। यहां के हरे भरे जंगल और पहाड़ हमारी सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं के साक्षी रहे है। पूंजीवादी व्यवस्था को यह भावनाएं भले बेमानी लगे, लेकिन हमारे लिये अपनी मिट्टी से भावनात्मक जुड़ाव का एहसास अनमोल है। हम खेती-बाड़ी कर अपने परिवार का भरण पोषण और बाल-बच्चों के सपने पूरे कर रहे हैं और इसी में खुश हैं। अपनी जमीन हम किसी कीमत पर नहीं देंगे।
गोंदलपुरा और आसपास है बहुफसलीय क्षेत्र : ग्रामीण
बताया जाता है कि इस कोल ब्लॉक के लिए गोंदलपुरा पंचायत के गोंदलपुरा और गाली गांव और महुंगाईकला पंचायत के बलोदर, हाहे और फुलांग गांव की जमीन अधिग्रहण करना है। इन गांव में आदिवासी, हरिजन और ओबीसी के साथ अल्पसंख्यक लोग निवास करते हैं। जहां तक इन क्षेत्रों की जमीन की महत्व को समझना है तो इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन जमीनों से 12 महीने बहु फसलों का उत्पादन होता है। वही इस क्षेत्र में बने गुड़ की झारखंड, बिहार, बंगाल, उड़ीसा में जबरदस्त मांग है। इन गांव में दलहन, धान, गेहूं, मक्का, गन्ना, मडुवा, आलू, प्याज, मिर्चा, खीरा, ककड़ी, कद्दू, सीम सहित कई फसलों का पैदावार होता है। वही इन गांव से सटे जंगलों में चीता, भालू, बंदर, मोर, लोमड़ी, लकड़बग्घा सहित कई जंगली जानवरों और पंक्षियों निवास हैं। वही इन क्षेत्रों में हाथियों का कॉरिडोर भी है जहां से हाथियों का आना जाना होता है। दामोदर नदी इस क्षेत्र से गुजरती है। जिसकी वजह से खेतों में हरियाली हमेशा बनी रहती है। आसपास पेड़-पौधे भी काफी दिखते हैं। क्षेत्रों में कोल माइंस खुलता है तो आसपास के इलाके में भी खेतों की सिंचाई प्रभावित होगी। वही गांव में पूजा स्थल देवस्थान बौद्ध काल के अवशेष आज भी दिखते हैं। जो संरक्षण के अभाव में समाप्त होते नजर आ रहे है।
क्या कहते हैं जानकार
वहीं जानकारों की मानें तो जमीन अधिग्रहण के मामलों में सिस्टम भारी विरोधाभास से घिरा हुआ दिखता है। सरकारी, गैरसरकारी उपक्रमों और कल-कारखानों की स्थापना के नाम पर कृषि योग्य जमीन को बर्बाद कर किया जा रहा है। जंगल उजाड़े जा रहे हैं। रैयतों और विस्थापितों को क्या मिलता है यह आसपास के कोयलांचल क्षेत्र की स्थिति देख आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। दशकों से खनन के बाद खदानों को न तो भरा गया और न ही रैयतों को वापस दिया गया। हरी-भरी जमीन पत्थरों के टीलों में तब्दील करके बंजर छोड़ दी गई हैं। नियमों को ताख पर रखकर दशकों से प्रदूषण फैलाया जा रहा है। यह सब भविष्य की पीढियों के लिए बड़े खतरे का संकेत है। जब कृषि योग्य भूमि और पेड़ पौधों से भरेपूरे जंगल नहीं रहेंगे, तब लोग अनाज के लिए तरसेंगे और शुद्ध प्रायवायु के लिए भटकेंगे।
बहरहाल, सिस्टम की यह कैसी लाचारी है और विकास के नाम पर कैसी आपाधापी मची हुई है कि कृषि योग्य जमीन और अनमोल वन संपदाओं तक की बलि चढ़ानी पड़ रही है। एक वृक्ष सौं पुत्र समान, पर्यावरण है तो जीवन है, पेड़ लगाये धरती बचायें जैसी बातें सिर्फ कहने की बातें हैं या फिर इनके कुछ असल मायने भी बचे हैं! हालांकि पर्यावरण संरक्षण और संवंर्धन की योजनाओं पर लाखों करोडों खर्च करके भी धरातल पर स्थिति अब भी चिंताजनक ही है।
कृषि योग्य और बहुफसलीय भूमि का अधिग्रहण असंवैधानिक : अनिरुद्ध कुमार
जमीन अधिग्रहण को लेकर चल रहे विवाद के संबंध में अधिवक्ता अनिरुद्ध कुमार बताते हैं कि 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत निजी कंपनियों को जमीन अधिग्रहण के पूर्व 80 प्रतिशत परिवारों की सहमति लेनी होगी। लेकिन यहां जो भी कंपनियां स्थापित हुई हैं उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके साथ ही उसी कानून में यह भी प्रावधान है कि कृषि योग्य और बहुफसलीय भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा।