यादों के झरोखे से…
रामगढ़: अंधेरे में कुर्सी पर दिल थामे सैंकड़ों सिनेमा प्रेमी…ये बजी तीसरी घंटी और फैली सुर्ख लाल रौशनी…किसी भव्य रंगमंच की तरह धीमे-धीमे खुलता शानदार पर्दा और तीन घंटे का सिनेमाई सफर…कभी यही नज़ारा हुआ करता था न…भुरकुंडा कोयलांचल के जनता टॉकीज का।भुरकुंडा कोयलांचल में 70 के दशक में सिनेमा का चढ़ता सुरूर 80 के दशक में खूब परवान चढ़ा और 90 के दशक में लोगों के सिर चढ़कर भी बोला। जनता टॉकीज में भीड़ का आलम कभी ऐसा भी हुआ कि लोगों ने बेंच पर या फिर नीचे बैठकर भी फिल्म देखी। यही नहीं हाउसफुल होने पर लोग सिनेमा हॉल के बाहर गोल चबूतरे पर बैठ दूसरे शो के शुरू होने का इंतजार तक करते दिखते थे। बाहर मोहम्मद रफी के बजते गीतों में वक्त बस यूं ही कट जाता था। वहीं सिनेमा हॉल के शो के हिसाब से ही कमोबेश बाजार का वक्त भी तय होता था। शो खत्म होते ही बाजार में कौतूहल का माहौल बन जाता था। सवारी वाहनों के चालक और भुरकुंडा बाजार के दुकानदार सक्रिय हो जाते थे। सिनेमा हॉल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सैंकड़ों लोगों की जीविका चलती थी। अब वह दौर पीछे छूट गया है। मनोरंजन के संसाधनों पर स्मार्ट फोन का राज हो गया है। लोग मोबाइल पर घंटों वक्त बीताते हैं और सोशल मीडिया पर मनोरंजन के रास्ते तलाशते हैं। बची-खुची सामाजिकता अब तीज-त्योहारों तक ठिठक गयी है और समय के साथ मंद भी पड़ती जा रही है। इसका व्यापक असर छोटे-बड़े शहरों और कस्बों के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों पर भी पड़ा है। तकरीबन एक दशक से जनता टॉकीज का संचालन जारी रखने की जद्दोजहद चल रही है। कभी-कभार चुनिंदा फिल्में लगती हैं, जबकि गाहे-बगाहे कुछ दर्शक ही जुट पाते हैं। 

चार दशकों का शानदार सफर 

एक दौर वह भी था जब जनता टॉकीज की भव्यता और अंदरूनी खूबसूरती इसे अपने समय के अन्य सिनेमा हॉल से अलग बनाती थी। फ्रंट स्टॉल, मिडिल स्टॉल, रियर स्टॉल और बालकनी के अलावा लेडीज स्टॉल की व्यवस्था थी। यहां सिनेमा का अनुभव लेने के लिए दूर-दराज के राज्यों से लोग आते थे। वहीं भुरकुंडा कोयलांचल की दो पीढ़ियों ने भी यहां मनोरंजन का लंबा सफर तय किया है। यहां किसी ने माता-पिता की गोद में हंसी-ठिठोली के बीच जीवन के सुखद आनंद की अनुभूति की, तो कोई अपने सगे संबंधियों और दोस्तों के साथ खट्टी-मीठी यादें संजो गया। कोयला खदानों में जी तोड़ मेहनत के बाद मजदूर यहां आकर आनंद के कुछ पल गुजार लेते थे। टिकट खिड़की की भीड़ में जोर आजमाईश और ब्लैक में टिकट खरीदने की जद्दोजहद यादें बनकर अब भी कईयों के जेहन में ताजा होंगी। तब इंटरवल में हॉल के अंदर बिकता पॉपकॉर्न व चटपटा “चना जोर गरम” और हॉल से सटे बुलबुल होटल के समोसे और आलू चॉप के लिए लगती भीड़ के नजारे भी तो याद ही होंगे। आज मोबाइल के छोटे से स्क्रीन पर सुबह से शाम एकल रूप से मनोरंजन तलाशती पीढ़ी उस ढाई-तीन घंटे के सामूहिक आनंद का एहसास शायद ही कर सके।

पहली फ़िल्म लगी ‘राजकुमार’, ‘नदिया के पार’ ने कायम किया रिकॉर्ड 

बताया जाता है कि वर्ष 1967 में जनता टॉकीज की शुरुआत हुई थी। पहली फ़िल्म प्रदर्शित हुई शम्मी कपूर और साधना अभिनीत ‘राजकुमार’। क्षेत्र के अधिकांश लोगों का भव्य सिनेमा हॉल में फिल्म देखने का यह पहला अवसर रहा। इसके बाद शुरू हुआ सिलसिला चार दशकों तक निर्बाध रूप से जारी रहा। जनता टॉकीज में 70 एमएम के पर्दे पर हिंदी सिनेमा की शानदार फिल्म ‘शोले’ ने दर्शकों में जुनून सा पैदा कर दिया। जुनून ऐसा कि लोगों ने कई-कई बार इस फिल्म को देखा। घरों में टेप रिकॉर्डर के साथ शोले के डॉयलॉग वाले ऑडियो कैसेट मानों प्रतिष्ठा का विषय बन गए थे। गब्बर के डायलॉग, जय-वीरु की दोस्ती, अंग्रेजों के जमाने के जेलर और सूरमा भोपाली की कॉमेडी लंबे अरसे तक चौक-चौराहों पर चर्चा का विषय बनी रही। 

‘नदिया के पार’…सचिन पिलगांवकर और साधना सिंह अभिनीत यह फिल्म जनता टॉकीज में सबसे अधिक समय तक प्रदर्शित होनेवाली फिल्म रही। यह लगातार 31 सप्ताह प्रदर्शित हुई थी। जानकार बताते हैं कि तब फिल्म के प्रोमोशन के लिए सचिन और फिल्म के अन्य कलाकार जनता टॉकीज आए थे। सिनेमा हॉल के अंदर एक प्रोग्राम भी हुआ था, जहां आम लोग फिल्म के कलाकारों से रूबरू हुए थे। 

वहीं बेहतरीन गीतों से लबरेज फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ भी यहां काफी समय तक प्रदर्शित हुई। फिल्म को लेकर युवाओं की दिवानगी सिनेमा हॉल से लेकर सड़कों पर भी दिखाई पड़ी। फिल्म के कलाकारों द्वारा पहने गए जैकेट, कैप के डिजाइन कोयलांचल में फैशन ट्रेंड बन गए। वहीं टेप रिकॉर्डर और कैसेट्स की बिक्री भी धड़ाधड़ बढ़ गई। आलम यह रहा कि बड़ी संख्या में दर्शकों ने इस फिल्म को कई बार देखा। दूर-दराज से लोग अपने रिश्तेदारों के यहां सिर्फ फिल्म देखने के बहाने पहुंचने लगे। 

जनता टॉकीज के लिए एक और महत्वपूर्ण पड़ाव रहा 1994 में रिलीज हॉलीवुड की पहली हिंदी डब्ड फिल्म ‘जुरासिक पार्क’। जहां आम दर्शकों के अलावा स्कूली बच्चों ने सामूहिक रूप से पहली बार रुपहले परदे पर विलुप्त प्रजाति डायनासोर को जीवंत स्वरूप में देखा। उत्कृष्ट टेक्नोलॉजी से गढ़े गए इस काल्पनिक संसार में लोगों जिस रोमांच की अनुभूति की थी उसका एहसास दो पीढ़ियों के दिलों में हमेशा ताज़ा रहेगी। 

इसके साथ ही 90 के दशक में कई अन्य हिन्दी फिल्मों का लोगों ने खूब आनंद उठाया। इधर, सीडी कैसेट्स की घर-घर पहुंच हो जाने पर 2010-11 तक कुछ खास‌ फिल्में ही दर्शक बटोर सकीं। संभवतः 2015 में आई फिल्म ‘बाहुबली’ आखिरी फिल्म मानी जा सकती है जिसने काफी हद तक दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींचा। आज स्मार्टफोन और सस्ते इंटरनेट का प्रभाव ऐसा पड़ा कि जनता टॉकीज नियमित संचालन तक की जद्दोजहद से जूझ रहा है। बीता हुआ वह दौर वापस नहीं आएगा, लेकिन सीमित संसाधनों के बीच भुरकुंडा में मनोरंजन का केंद्र रहा जनता टॉकीज उस दौर के लोगों के मन-मस्तिष्क में हमेशा कायम रहेगा। 

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