कितनी सुन्दर बनी ये धरती
छतरी बना नीला आसमान,
तरह-तरह के जीव हैं इसमें
इन्हीं में है एक जीव इन्सान।

जो सब जीवों पे भारी पड़ता
सबके जीवन पर शोध किया,
जीव में सबसे उत्तम बन बैठा
किसी ने भी नहीं विरोध किया।

अपने को बढ़ा रहा है मानव
बाकी जीव स्वयं सिमट गये,
उनका आश्रय उजाड़ रहे हैं
जीव न जाने, अब कहां रहे।

समतल हो रहा है उनका वन
जीवों को है जिसकी जरुरत,
देख रहे बेबसी से कटते जाते
जंगल घनी हो रह गई हसरत।

इन्सानों की बस गए बस्ती में
उनका नहीं कभी दखल रहा,
फिर बेबस बेजुबानों के उपर
इन्सान ने क्यों है कहर किया।

प्रकृति के नियम, सदा तोड़ा
समझते रहे ये ही विकास है,
भूकम्प, बाढ़, पिघलता बर्फ
बताता, आगे सिर्फ विनाश है।

उस डाल को हीं मत काट दो
जिस डाल आप हो बैठे हुए,
कालिदास जी तो मर्म समझें
राह से फिर क्यों भटक रहे।

मीठे जल का श्रोत सुख रहा
बोतल पानी को हो खरीद रहे,
क्या अपनी सांसों की खातिर
चाहते घुमना शुद्ध हवा लिये।

पर्यावरण दूषित होता जाता
सांस के लिये इसे ठीक करो,
दम घोंटु मृत्यु आने के पहले
जंगल को कटने से रोक दो।

परमानंद प्रसाद
सेवानिवृत्त सीसीएलकर्मी, रांंची

 

Disclaimer: उपरोक्त रचना लेखक द्वारा स्वैच्छिक रूप से भेजी गई हैं। खबर सेल रचना की मौलिकता के संबंध में कोई पुष्टि नही करता। 

 

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