रिपोर्ट- रघुनंदन
रामगढ़: होली का स्वरुप तो अब भी वही है, लेकिन रंग-गुलाल अब फीके से पड़ते दिख रहे हैं। कभी गैरों को भी अपना बना देती थी होली, अब होली पर अपने भी पराये हुए जा रहे है। यह मन में पैंठ बनाता झूठा अहंकार है या शराब का सुरूर, कि कभी प्रेम, उमंग और उत्साह से लबरेज रहने वाली होली आज असुरक्षा के बीच चहारदीवारी में कैद हो चली है।
सीसीएल बरकासयाल और आसपास के ग्रामीण क्षेत्र की बात करें तो लगभग दो दशक पहले होली पर माहौल और लोगों होलियाना मिजाज कुछ और ही हुआ करता था। होलिका दहन से लेकर होली की देर शाम तक बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक का उत्साह और उनकी उर्जा देखते बनती थी।
कोयलांचल की रंगीन होली और विविधता में एकता
कोयले की काली खदानों के मेहनतकश श्रमिकों की होली एक दशक पहले वाकई रंगीन हुआ करती थी। ये रंग सिर्फ अबीर और गुलाल का नहीं, बल्कि विविधता में एकता और आपसी प्रेम का रंग था। जीविकोपार्जन के लिए कोलियरियों में पहुंचे और कॉलोनियों की शक्ल में बसे बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा सहित अन्य राज्यों के लोगों की समावेशी होली की बात निराली थी। कथित चाचा-चाची, मौसा-मौसी, भईया-भाभी सरीखे रिश्तों में बंधे अलग-अलग प्रांत के लोग जब होली की टोली बनते, तब भाषा-बोली, खान-पान, जात-धर्म सब एक हो जाया करता था। होली पर लाल-हरे, नीले-पीले रंगों से पुते चेहरे और हाथ में ढोलक-झाल, एक दूसरे से बचकानी हंसी ठिठोली का असर मानो पूरे वर्ष ही रहता था। तामझाम भले कुछ ज्यादा न था पर होली की मौज- मस्ती में कोई कमी नहीं छूटती थी।
होली के 10-15 दिन पहले से ही होलिका दहन के लिए झाड़ी-झुरमुट जुटाते बच्चे, सजती दुकानों पर रंग-पिचकारी खरीदने को मचती जिद, फिर होली के दिन सड़क पर अंजान लोगों को रंगने की मचती होड़, होली की शाम ऑफिसर्स कॉलोनियों में मेले सा माहौल। कहीं कुर्ता फाड़ तो कहीं कोयले की उड़ती उजली राख। कहीं घर-घर जाकर पुआ, पकौड़ी, गुलाब जामुन, दही बड़े का वो उन्मुक्त आनंद, तो कहीं भंग के नशे में टिन-टपर की बेसुरी धुन पर जोगीरा सारारारा गीत…कमोबेश कोयलांचल में होली की यही तस्वीर थी। तब न झिझक थी न किसी से असुरक्षा, था तो सिर्फ अपनापन और विश्वास।
ग्रामीण क्षेत्र में भी होली की मची रहती थी धूम
वहीं ग्रामीणों इलाकों में भी होली पर धूम सी मची रहती थी। समूचा गांव एक परिवार हो जाता। हर-टोला-हर गली की मालिक सिर्फ होली की टोली होती थी। साल भर से बंद बोलचाल होली पर मेल-मिलाप से फिर शुरू हो जाती थी। होलिका दहन पर लोग चिटचिटी की लकड़ी जलाते थे। जिससे चिटचिट की आवाज के साथ निकलती चमकती चिंगारियां बच्चों का उत्साह दोगुना कर जाती थी। होलिका दहन की सुबह राख, मिट्टी, कीचड़ से शुरू होती होली गाने-बजाने के साथ दोपहर तक चलती थी। इसके बाद महिलाओं की टोली निकलती और पूरे गांव में घूमकर रंगों की होली खेलती। नहा-धोकर शाम में लोग फिर अबीर-गुलाल खेलने निकलते और फिर देर-रात तक चबूतरे पर चौपाल लगकर गाजे-बजाने का सिलसिला चलता रहता।
कोयलांचल सहित ग्रामीण क्षेत्र में भी होली पर अब बदलते समय का असर दिखाई पड़ता है। बदलती मानसिकता, आपसी तनाव और झूठा अहंकार स्थाई रूप से हावी हो चला है। कहना गलत नहीं होगा कि तब जरूरतें कम थी, मिल बांटकर खानें की सोच थी, बड़ों का आदर था और छोटों से स्नेह। अब वह होली शायद बिरले ही कभी देखने को मिले।। बहरहाल होली हमेशा से खास रही है और आगे भी रहेगी। क्योंकि इसकी खट्टी-मिट्टी और रंगभरी यादें हर किसी के हृदय में जरूर बसी हुई है, जो शायद हमेशा हरीभरी और जीवंत रहेंगी।
आजसू पार्टी के दिलीप दांगी कहते हैं कि होली पर लोग एक-दूसरे से मिलजुलकर साल भर का बैर-भाव भूल जाते थे। अब होली पर ही झगड़े ज्यादा होने की गुंजाइश बनी रहती है। पहले लोग भांग के नशे में अपनी धुन में मस्त नाचते-गाते थे। किसी को नुकसान या ठेस पहुंचाने की मंशा नहीं होती थी। अब शराब के नशे में लोग होली को बेरंग बना रहे है।
भुरकुंडा के व्यवसायी राजेंद्र महतो कहते हैं कि कोयलांचल में होली एक-दूसरे से मेल-मिलाप का सबसे अच्छा अवसर होता था। लोग अपरिचितों के साथ भी होली खेलने में झिझक महसूस नहीं करते थे। अब लोग छोटी-छोटी बातों का बतंगड बनाकर एक दूसरे से उलझ जाते हैं।
देवरिया पंचायत के पूर्व मुखिया राजेंद्र मुंडा ने कहा कि होली की जितनी यादें जेहन में हैं उतनी शायद ही किसी और त्योहार की हो। यह आपसी प्रेम और सद्भाव का पर्व है। आम लोग अब हुड़दंग और झंझटों से बचने के लिए समिति दायरे में ही बच-बचाकर होली खेलना ही पसंद करते है।
रीवर साइड बुधबाजार दोतल्ला पंचायत के उप मुखिया प्रशांत कुमार कहते हैं कि पहले लोग एकदूसरे के घर जाकर अबीर-गुलाल लगाते थे। अब होली पर लोग कहीं आना-जाना पसंद नहीं करते। इसकी प्रमुख वजह शराब और नशे का बढ़ता प्रचलन है। होली बुराई पर अच्छाई की जीत और आपसी प्रेम-सद्भाव का प्रतीक है, इसे नशे से बदरंग नहीं करना चाहिए।
भुरकुंडा के होटल संचालक अनिल कुमार केशरी कहते हैं कि होली पर अब पहले वाली बात नहीं रही। लोग होली को शराब पीने और झगड़ा-झंझट का मौका समझने लगे है। पहले ऐसा नहीं था, सब एकदूसरे के साथ मिलजुलकर हंसी खुशी से होली मनाते थे।