रिपोर्ट: रघुनंदन
फागुन के महीने में फगुआ गीतों की बैठकी हमारी पुरानी संस्कृति में से एक हैं। खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित झारखंड में फागुन के महीने में होली की तैयारियों के साथ फगुआ गीतों की बैठकी का प्रचलन लंबे समय से रहा है। कहीं इसे फगुआ तो कही फाग के नाम से भी जाना जाता है। आज भी कहीं-कहीं उम्रदराज लोग इस संस्कृति के वाहक के रूप में दिखते हैं। लेकिन बदलते परिवेश में यह संस्कृति विलोपन की ओर बढ़ रही है। कहना गलत नहीं होगा कि आनेवाले वर्षों में फगुआ गीतों की बैठकी और सम्मेलन सिर्फ यादें बनकर रह जाएंगी।
एक समय था कि जब खेती-बारी के काम से फुरसत पाकर लोग पूरे फाल्गुन माह आनंद मनाते थे। ग्रामीण इलाकों में किसी मंदिर के प्रांगण या सार्वजनिक चबुतरे पर चौपाल की तरह फगुआ की मंडली बैठती थीं और देर रात तक फगुआ गीतों की महफिलें सजती थी। घरों से अलग-अलग पकवान पहुंचते थे। लोग एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर फगुआ गीतों पर झूमते और हंसी-मजाक में बैर-भाव भूलते थे।
ये वह दौर था जब फगुआ गीतों में अध्यात्म, किस्सों-कहानियों के प्रसंग के साथ-साथ हंसी-ठिठोली और राजनैतिक हास्य-व्यंग का समावेश होता था। समय बीतने के साथ एकजुट होकर आनंद मनाने की संस्कृति का लोप होने लगा है। नशे की बढ़ती लत और फगुवा गीतों में फूहड़ता से लोगों का उत्साह घर की चहारदीवारी तक सिमटने लगा। असुरक्षा की भावना ने खुशनुमा फागुन के रंग को फीका कर दिया। फागुन के साथ होली का त्योहार वाद-विवाद, झगड़े-झंझट और एक दूसरे के प्रति बढ़ते अविश्वास के बीच सिकुड़ता चला जा रहा है।
वहीं फगुआ गीतों के अधिकांश पारंपरिक गायकों ने बढ़ती महंगाई में जीविकोपार्जन के लिए कृषि के अलावे नये पेशे तलाश लिए। फिर न तो गाने-बजाने का सिलसिला रहा और न यह कला सही रूप से अगली पीढ़ियों तक पहुंच सकी।
सामाजिक रूप से पारंपरिक फगुआ गीतों की बैठकी के असल मायने क्या हैं और आपसी सुख-दुख एक दूसरे से बांटने के प्रचलन की महत्ता क्या है, यह डीजे के फूहड़ गीतों और कर्कश धुन पर थिरकती और शराब के नशे हुड़दंग करने को आतुर नयी पीढ़ी को शायद ही कभी समझ में आए।
आज लोग मोबाइल पर सिमटते और सामाजिक रूप से कटते जा रहे हैं। यह एक बड़ी वजह है आपसी विश्वास खत्म होता जा रहा है और लोग सुख-दुख और विकट परिस्थितियों में खुद को असहाय और अकेला महसूस करते हैं।
फगुआ मंडली में लंबे समय से कोरस के रूप में योगदान देनेवाले कलाकार वीरू राय बताते हैं कि अब फगुआ गीतों के कार्यक्रम और बैठकी का प्रचलन नहीं के बराबर रह गया है। पहले फगुआ मंडली में शामिल होकर झारखंड, बिहार और यूपी के विभिन्न इलाकों में जाना होता था। तब न फूहड़ता थी न द्विअर्थी गीत। आज लोग नशे में धुत होकर फूहड़ गीतो की डिमांड करते हैं। चूंकि कलाकार को जीविकोपार्जन की मजबूरी होती है, इसलिए मजबूरी में आयोजकों की बातें माननी पड़ती है।
भजन और फगुआ गीत गायक गोपाल झा कहते हैं कि फागुन का उमंग डीजे का शोर-शराबा बनकर रह गया है। अच्छे फगुआ गीत की बजाय अब सिर्फ म्यूजिक ही बजता है। पारंपरिक फगुआ गीत की बैठकी का प्रचलन खत्म हो रहा है। कम खर्च पर ही डीजे की व्यवस्था हो जाती है, इसलिए लोग अब अपने-अपने गली मुहल्लों में इसे बजाकर ही आनंद मना लेते हैं।