रानी दुर्गावती के बलिदान पर विशेष :
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भारत देश की भूमि वीरों के साथ-साथ विरांगनाओं की भूमि रही है। जिनके शौर्य और बलिदान का पूरे विश्व में कोई सानी नही है।  रानी दुर्गावती का नाम ऐसी ही महान वीरांगनाओं में शुमार है। गोंडवंश की रानी ने मुगलकालीन शासकों से कई युद्ध लड़े और मातृभूमि पर न्योछावर हो गयीं। इतिहासकारों ने भले उनकी वीरता को वाजिब तवज्जो न दी हो लेकिन दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियों में रानी दुर्गावती की गाथाएं भी लंबे अरसे तक जीवंत रही हैं। आनेवाली पीढ़ियां भी अपने देश के गौरवशाली इतिहास को जानें, इसके लिए भी प्रयास निरंतर जारी रहना चाहिए।

रानी दुर्गावती का इतिहास मध्यप्रदेश के इलाके से जुड़ा हुआ है। 1525 ई. में चंदेलवंश के राजा कीरत राय के घर रानी दुर्गावती का जन्म हुआ। रानी अस्त्र-शस्त्र चालन में बेहद पारंगत थी।  गोंड वंश के राज दलपत शाह से उनका विवाह हुआ। विवाह के चार वर्ष के उपरांत पति के मरणोपरांत रानी दुर्गावती ने अपने तीन वर्षीय पुत्र नारायण को उत्तराधिकारी बनाकर खुद शासन की बागडोर संभाली। रानी दुर्गावती ने मध्यप्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में 16 वर्षों तक शासन किया था। जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था।

बताया जाता है कि अपने शासनकाल में उन्होंने मुगलों से कई युद्ध लड़े। मुगल शासक अकबर की अधीनता की जगह उन्होंने स्वतंत्रता को चुना। अपने युद्ध कौशल से उन्होंने मुगलों को कई बार हराया। लगातार युद्ध से उनकी सैन्य शक्ति कम होती चली गई।  मुगलों ने पूरी ताकत के साथ 24 जून 1564 को पुनः आक्रमण किया। अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज रानी फिर युद्ध में उतर गयीं। अंतिम युद्ध लड़ते हुए  घायल हो चुकी रानी दुर्गावती ने आखिरी समय में खुद अपने सीने में खंजर घोंपकर बलिदान दे दिया।

महान वीरांगना के सम्मान में जबलपुर (मध्यप्रदेश) में स्थापित जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय किया गया। 24 जून को रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस मनाया जाता है।

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