रामगढ़: देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में बसंत पंचमी पर विद्या की देवी मां सरस्वती की पूजा विधि-विधान से करने की परंपरा रही है। आज चहुंओर मां सरस्वती की पूजा की हो रही है और वातावरण में भक्तिभाव और उल्लास के अनूठे समावेश की अनुभूति हो रही है।
बात अपने कोयलांचल की करें तो यहां विद्यालयों से लेकर मुहल्लों और गली-कूचों से लेकर चौक चौराहों तक मां शारदे की पूजा-अर्चना होती है। कहीं भव्य और आकर्षक पंडाल सजते हैं तो कहीं सादगी से मां की अराधना होती है। कोयलांचल में हरेक व्यक्ति की भावनाएं सीधे तौर पर सरस्वती पूजा से जुड़ी हुई हैं। बच्चे और किशोर उत्साह से लबरेज दिखते हैं। वहीं कई लोगों के लिए बसंत पंचमी बीते दौर की सुनहरी यादें भी लिए आती है। वह दौर जब घरों से साड़ियां मांग-मांग कर बच्चे पूजा पंडाल बनाते दिखते थे। बड़ों का मार्गदर्शन होता था और नन्हे-मुन्ने बच्चे सुतरी बांधते और लेई से तिलंगी सटाते देखे जाते थे। तब पंडालों की सजावट महज साड़ी, पुआल, फूल, रूई, तिलंगी और लाइट तक ही सीमित होती थी, लेकिन उमंग और उत्साह असिमित होता था। तब मुहल्लों में चंदे के लिए बच्चों की टोलियों की धमाचौकड़ी भी खूब मचती थी।
वहीं बड़ी पूजा समितियां बड़े पैमाने पर सरस्वती पूजा की तैयारी करती थीं। आकर्षक पंडालों में बड़ी प्रतिमाएं रखी जाती थी और सजावट में कोई कोर-कसर बाकी नहीं होती थी। शाम के समय पास-पड़ोस के परिवार एक साथ अलग-अलग पंडालों में विराजमान मां सरस्वती की आकर्षक प्रतिमाएं देखने जाते थे और फिर रात को घर लौटते थे। वहीं पूजा स्थलों के पास कहीं वीसीआर पर वीडियो फिल्में चलती थीं तो कहीं लोगों की भीड़ बड़े पर्दे पर पूरी रात फिल्मों का आनंद उठाते थे।
सरस्वती माता की…जय!.. हंस वाहिनी की..जय!…विद्या दायिनि की…जय!…. उद्घोष के साथ जब प्रतिमाओं का विसर्जन होता था तब हर एक हृदय कलप उठता था। वहीं पूजा का सफल आयोजन चित को शांति और सुकून से भर देता था।
अब भी मां हंस वाहिनी की पूजा उमंग और उत्साह से की जाती है। हालांकि पूर्व की अपेक्षा अब कम जगहों पर पंडाल सजते हैं। कई पूजा समितियां अब बीते दिनों की बात हो गई हैं। युवा और बच्चे भी ऐसे धार्मिक आयोजन में भागीदारी निभाने और सामाजिक एकजुटता से कट रहे हैं। यह हावी होती आधुनिकता है या समाज में बढ़ता विरोधाभास, इस पर विचार जरूर किया जाना चाहिए।