मुक्ता सिंह, रांची

“आदिवासी” शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है। इसका अर्थ है जो आदि काल से वास कर रहा हो। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा 11 करोड़ से ज्यादा आबादी आदिवासियों का है। भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची में आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजातियों शब्द का उपयोग किया गया है।

भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में संथाल, गोंडाए, मुंडा, बोडोए भील खासी, सहरिया, गरासिया, मीणा, उरांव, बिरहोर आदि हैं। ये प्रकृति और जंगल पहाड़ नदियों एवं सूर्य की आराधना करते हैं। इनके अपने पारंपरिक परिधान होते हैं ,जो ज्‍यादातर प्रकृति से जुडे होते हैं। भारत में आदिवासी मुख्यरूप से उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में है। जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं।

अब बात करते हैं विश्व आदिवासी महोत्सव की शुरुआत की । इसकी शुरुआत 9 अगस्त 1982 को संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर मूलनिवासियों का पहला सम्मेलन हुआ था। इसकी स्मृति में विश्व आदिवासी दिवस मनाने का आह्वान 1994 में किया गया।और इस दिवस को खास तौर पर मनाया जाने भी लगा है। विश्व आदिवासी दिवस न केवल मानव समाज के एक हिस्से की सभ्यता एवं संस्कृति की विशिष्टता का द्योतक है, बल्कि उसे संरक्षित करने और सम्मान देने के आग्रह का भी सूचक है। आदिवासी समुदायों की भाषा, जीवन-शैली, पर्यावरण से निकटता और कलाओं को संरक्षित और संवर्धित करने का प्रयास भी है ।

इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने ‘भाषा’ को आदिवासी दिवस का थीम बनाया है। आपको बता दें।की पूरे विश्व में लगभग 370 मिलियन आदिवासी समुदाय के लोग हैं ,जो पूरे विश्व की जनसंख्या का पांच प्रतिशत है। गौर करने वाली बात यह भी है कि यह आबादी सात हजार भाषाएं बोलती है, और पांच हजार तरह की संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर हम बात सिर्फ झारखंड की करें तो यह एक आदिवासी बहुल राज्य है, जहां की कुल आबादी के लगभग 27 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व आदिवासी करते हैं।  यहां 32 प्रकार की जनजातियां हैं और वे विभिन्न मातृभाषाओं का प्रयोग करते हैं ।

 लेकिन आज अगर आदिवासी दिवस का थीम भाषा को बनाने की। जरूरत महसूस हुई, तो इसका कारण यह है कि आदिवासी अपनी भाषा से दूर हो रहे हैं। वे अपनी मातृभाषा को छोड़कर हिंदी और अंग्रेजी में बात कर रहे हैं। ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि आदिवासियों की मातृभाषा को कैसे संरक्षित किया जाये ।

चिंतन का एक विषय यह भी है कि आदिवासी समाज आज कहां खड़ा है, देश आऔर झारखंड में उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? आज भी जमीन का मुद्दा आदिवासियाें के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है और इस समाज के सामने बड़ी चुनाैती है कि विकास का मॉडल क्या हाे जिससे वे पिछड़े भी नहीं और उनकी संस्कृति भी सुरक्षित रहे।

अगर पूरे देश की चर्चा की जाए, ताे 50 सालाें से भारत में कुल आबादी में आदिवासियाें का प्रतिशत लगातार बढ़ता रहा है, जबकि झारखंड में यह घटता जा रहा है। 1961 में जहां देश की आबादी में 6.9 प्रतिशत आबादी आदिवासियाें की थी, जाे 2011 में बढ़ कर 8.6 फीसदी हाे गयी है। इसके उलट झारखंड में कुल आबादी में आदिवासियाें का प्रतिशत 1931 से (अपवाद है 1941) लगातार घटता जा रहा है।1931 की सेंसस रिपाेर्ट के अनुसार,  झारखंड क्षेत्र की कुल आबादी में 38.06 प्रतिशत आदिवासी थे झारखंड में 80 साल में घटते-घटते आदिवासियाें का प्रतिशत अब 26.2 रह गया है, यानी 80 साल में 11.86 प्रतिशत का फर्क। हां, वर्ष 2001-2011 के दाैरान घटने की दर में जरूर कमी आयी है। एक और फर्क देखने को मिला है,  2001 में पूरे झारखंड में 3317 गांव ऐसे थे, जहां साै फीसदी आबादी आदिवासियाें की थी, वह 2011 में घट कर 2451 रह गये हैं।  शहरीकरण में देश के आदिवासियाें की तुलना में झारखंड के आदिवासी आगे रहे हैं।

 देश में 10.4 कराेड़ आदिवासी हैं। इनमें से 2.8 प्रतिशत आदिवासी ही शहराें में रहते हैं।  जबकि झारखंड के 9.8 प्रतिशत आदिवासी शहराें में रहते हैं। आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में अब पांच जिले खूंटी, सिमडेगा, गुमला, पश्चिम सिंहभूम और लाेहरदगा जैसे जगहों में आदिवासियाें की आबादी कुल आबादी की 50 फीसदी से ज्यादा है। लातेहार, दुमका, पाकुड़, रांची, सरायकेला, जामताड़ा, पूर्वी सिंहभूम और साहेबगंज ये आठ जिले ऐसे हैं, जहां आदिवासियाें की आबादी 25 से 50 फीसदी के बीच रह गयी है। अन्य जिलाें में 25 फीसदी से कम आदिवासी हैं।

झारखंड के आदिवासी समाज की अपनी खूबियां हैं। कई मायने में यहां का आदिवासी समाज देश के अन्य हिस्साें के आदिवासी समाज पर भारी पड़ता है। इनमें एक है- बेटियाें काे बचाने का मामला. पुरुषों की तुलना में झारखंड में आदिवासी महिलाओं की संख्या ज्यादा है, यानी लिंगानुपात बेहतर है। 2001 में जहां 1000 आदिवासी आबादी पर महिलाओं की संख्या 987 थी, दस साल बाद यानी 2011 में यह संख्या 1003 तक पहुंच गयी। आज पूरे झारखंड में लिंगानुपात अगर बेहतर हुआ है, ताे इसमें आदिवासी समाज का बड़ा याेगदान है। शिक्षा के क्षेत्र में इस समाज ने 50 साल में पहले की तुलना में तरक्की की है। 1961 में जहां आदिवासी समाज में साक्षरता सिर्फ 8.53 प्रतिशत थी, 2011 में बढ़ कर 58.96 प्रतिशत हाे गयी है। हालांकि इस दाैरान सामान्य वर्ग में साक्षरता 28.3 फीसदी से बढ़ कर 72.99 प्रतिशत हाे गयी है। जहां 1961 में साक्षरता में यह अंतर 19.77 फीसदी का था, जाे 2011 में घट कर 14.03 फीसदी रह गया है। हां, झारखंड में आदिम जनजाति की स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं दिखता। जिसका उदाहरण है बिरहाेर जनजाति का विलुप्त हाेना। अगर एक जिले रांची की बात करें ताे 1911 में रांची जिले में (तब गुमला, लाेहरदगा, खूंटी, सिमडेगा भी रांची जिले का हिस्सा हुआ करता था) बिरहाेराें की कुल आबादी 927 थी। ठीक साै साल बाद यानी 2011 में बिरहाेराें की आबादी सिर्फ 1037 ही बढ़ी। अधिकांश आदिम जनजाति की लगभग ऐसी ही स्थिति है।

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